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Wednesday, November 10, 2010

कैसे चुकाएं इस क़र्ज़ को

कभी कभी ईश्वर
कुछ अजीब ही करामात करता है

बात करते हैं
एक पिता की ही
आज भीं वह  बरामदे में सोते हैं
अपने  आँखो में अनेक सपनों को लिए
हजारो दर्द सह कर भी
विचलित न होते

दिन रात  पसीने को बहा कर
 मन मन ही मन में सोचते
बाहर पढ़ रहे बेटे को
चलो इस बार ज्यादा पैसा  भिजवा दूंगा
हजारो दर्द सह कर भी
बेटे को बाहर पढ़ाते
शायद सपने  में भी न सोचा हो
कि  बुढ़ापे को सुखमय बनायेंगे मेरे लाल
अपने आप को कर के बेहाल

बच्चो के  भविष्य को करते जा रहे हैं  मालामाल
पर पुकारता है ये ह्रदय
क्या अदा कर पायेंगे
उनके बच्चे कभी  इस क़र्ज़ को
क्या निभा पायेंगे
वे अपने फ़र्ज़ को
क्या दे पायेंगे
अपने पिता को वो
आराम जो उन्हें
अभी करना चाहिए था
क्या होगा बुढ़ापे में उन्हें
महलों की खुशियां देकर
बार  बार ये हृदय पुकार उठ ता है
क्या उतार  पायेंगे उनके बच्चे
अपने पिता के  कर्ज को ...............

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